सुख के दिन कितने
शीघ्र ढले, हर आस मिटी सब स्वप्न जले,
चले मानव हो या
इश्वर हो, पर कर्म की गति टाले ना टले
तापस वेश बनाकर वैन
को चले हैं राम रघुराई, पितु का प्रण पूरण करने में
माँ के वचन पालन
करने में, तनिक क ना देर लगाई
तापस वेश बनाकर वैन
को चले हैं राम रघुराई
राम सिया की सेवा रक्षा करने को पुत्र सुमित्रा ने
सोंपा, लखन का बचपन संग चला और सीता संग चली वन छाया
बोली सुमित्रा लखन
से अब तेरे-2 राम पिता सिया मई
तापस वेश बनाकर वैन
को चले हैं राम रघुराई
रघु कोशल्या के द्वार खड़े, वन गमन की आघ्या मांग
रहे, निज पीर नयन का नीर छुपा, माँ देके विदा रघुवर से कहे
बन में सिया को जतन
से रखना, जनक दुलारी को जतन से रखना, राम लखन दो भाई
तापस वेश बनाकर वैन
को चले हैं राम रघुराई
पितु दशरथ के प्रण चले हैं, माता के अभिमान चले हैं,
चले है सुख आनंद अवध के जन जन के भगवान चले हैं
रोके रुके नहीं राम
तो संग में-2 सारी अयोध्या आई
तापस वेश बनाकर वैन
को चले हैं राम रघुराई, पितु का प्रण पूरण करने में
माँ के वचन पालन
करने में, तनिक क ना देर लगाई
तापस वेश बनाकर वैन
को चले हैं राम रघुराई, संग में लक्ष्मण भाई, चली जानकी माई
dukh me sumiran
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